मोदी राज में भगवा ख़ानदान और उसके मूर्ख भक्तों को असंख्य बार ये अफ़ीम चटायी गयी है कि जवाहर लाल नेहरू ने सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ अच्छा सलूक नहीं किया। या, नेहरू ने पटेल को गच्चा देकर प्रधानमंत्री का पद हड़प लिया था। जबकि सच ये है कि सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद महात्मा गाँधी ने नेहरू को आज़ाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनवाया था। गाँधीजी इस पद के लिए सरदार पटेल को भी उपयुक्त मानते थे, लेकिन उन्हें आख़िरकार किसी एक को ही तो चुनना था। यदि पटेल को इसमें नाइंसाफ़ी दिखी होती तो वो उपप्रधानमंत्री का पद भी क्यों स्वीकार करते? ये कल्पना भी नहीं की जा सकती कि पटेल जैसा जन-नेता सत्तालोलुप भी हो सकता है! लेकिन संघी हमेशा ये भ्रम फ़ैलाते रहे कि गाँधी जी को नेहरू की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और इससे पटेल को वो नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। ये भ्रम उस मोहन दास करम चन्द गाँधी का भी चरित्रहनन करता है कि वो किसी के आगे झुक भी सकते थे! सरासर झूठ, और निपट झूठ है, ये सारी बातें!
डाह्या भाई पटेल
दरअसल, मोदी राज की ये एक जगज़ाहिर साज़िश है कि किसी भी तरह से काँग्रेस से उसके सरदार पटेल, आम्बेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, महामना मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं के कृतित्व को हड़प लो! किसी भी तरह से ख़ुद को शहीद भगत सिंह, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल और चन्द्र शेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों का क़रीबी बताओ! जबकि सच्चाई तो ये है कि इनमें से किसी ने भी, कभी भी, किसी रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा और कार्यशैली की सराहना नहीं की। उल्टा, ये महापुरुष जब तक जीये, उन्होंने संघ को ना सिर्फ़ नापसन्द किया, बल्कि इसे नफ़रत के क़ाबिल भी बताया।
बहरहाल, अभी बात सरकार पटेल के जाने के बाद उनके परिवार के प्रति नेहरू के रवैये की। सरदार पटेल की दो सन्तानें थीं। बेटी मणिबेन पटेल और बेटा डाह्याभाई (Dahya Bhai) पटेल। महात्मा गाँधी की तरह, पटेल और नेहरू दोनों ही नहीं चाहते थे कि उनके जीते-जी उनकी सन्तानें उनकी हैसियत का फ़ायदा उठाएँ। हालाँकि, दोनों नेताओं की सन्तानों ने अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्रता आन्दोलन में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। लेकिन उन्हें पिता के नाम के आधार पर अपनी राजनीति चमकाने का मौका नहीं दिया गया। नेहरूजी ने भी बेटी इन्दिरा गाँधी को अपने जीते-जी कभी चुनाव लड़ने का टिकट नहीं मिलने दिया। हालाँकि, इन्दिरा गाँधी इसके लिए बहुत उत्सुक रहती थीं। इसीलिए जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद ही इन्दिरा, सांसद बन पायीं।
पिता सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ बेटी मणिबेन पटेल, 1946.
उधर, 1950 में सरदार बल्लभ भाई पटेल के निधन के बाद जवाहर लाल नेहरू ने उनकी दोनों सन्तानों को टिकट देकर संसद में भेजने का रास्ता बनाया। 1952 में मणिबेन पटेल, गुजरात के दक्षिण कैरा सीट से और 1957 में आणंद सीट से काँग्रेस के टिकट पर जीतकर लोकसभा पहुँचीं। 1962 में जवाहर लाल नेहरू ने मणिबेन को 6 साल के लिए राज्यसभा सदस्य के रूप में निर्वाचित करवाया। कालान्तर में, मणिबेन ने आपातकाल का विरोध किया। इसके बाद 1977 में वो जनता पार्टी के टिकट पर मेहसाणा सीट से लोकसभा पहुँची।
मणिबेन, एक परिपक्व राजनीतिक कार्यकर्ता थीं। 1930 में वो अपने पिता सरदार पटेल की सहायक बनीं और जीवनभर उनके साथ ही रहीं। जवाहर लाल ने कई बार मणिबेन की ख़ूब तारीफ़ की। मणिबेन के नाम पर ही अहमदाबाद के एक विधानसभा क्षेत्र का नाम मणिनगर रखा गया। प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी वहीं से विधायक थे।
सरदार पटेल की दूसरी औलाद डाह्या भाई पटेल, बम्बई में एक निजी बीमा कम्पनी में नौकरी करते थे। वो मणिबेन से तीन साल छोटे थे। जब सरदार पटेल उपप्रधानमंत्री बने तो उनके सेठ ने डाह्याभाई को किसी काम से दिल्ली भेजा। सरदार पटेल ने शाम को उन्हें खाने के समय समझाया कि जब तक मैं यहाँ काम कर रहा हूँ, तुम दिल्ली मत आना! डाह्या भाई भी काँग्रेस के टिकट पर 1957 और 1962 में लोकसभा के सदस्या रहे। 1970 में डाह्या भाई राज्यसभा सदस्य बने। सांसद रहते ही उनका निधन हुआ।